मैं गुरूवार के दिन पैसा खर्च करना नहीं चाहती हूं, क्यूंकि माँ कहती है गुरूवार को पैसा इधर-उधर नहीं करना चाहिए, लक्ष्मी नाराज़ हो जाती है। पर आज कल बहुत कम ऐसा होता है की किसी दिन पैसे खर्च ना हो। कोई न कोई ज़रूरत का सामान रहता ही है। कभी कुछ खाने का मन कर जाता है, कभी कोई चीज़ पसंद आ जाता है, और बाकी ज़रूरतों का कोई एक मौसम नहीं होता, वो लगा ही रहता है। ऐसा ही हो रहा है, किसी न किसी बात से पैसे खर्च हो ही जा रहे है।
पैसे की कोई खास नियत नहीं होती लेकिन लोगों की नियत इससे तय होती है। कोई इसके लालच में बदनाम होता है, कोई वैराग्य लेकर नाम कमाता है। हालांकि दोनो इसी की कमाई के नये रास्ते ढूंढते रहते है, पर फिर भी सामने से कतराते है।
किसी के रिश्ते टूट जाते है इसके वजह से और कहीं इसके तर्ज पर ही रिश्ते बन जाते है। जिंदगी में कम आने वाली चीज़ को ही लोग कमाना चाहते है। पैसे तो रास्ते बना लेते है आने जाने का, पर कुछ रिश्ते हमेशा के लिए छिटक जाते है ।
मुझे मालूम है कुछ लोग मुझसे आज तक सहजता से नहीं मिल पाए क्योंकि मेरे पास वो बातें नहीं थी जो महंगी थी। मैं अपने आप को इन लोगों के करीब रखना चाहती थी, पर नाकाम रही। इस फेर में वो लोग भी छूट गए जो मेरे जेब में पड़े छुट्टे पैसों से भी ज्यादा थे। जहां की बातें मुझे पता थी। जहां मैं बहुत सहजता से रह सकती थी। पर सहजता मेरे मध्यम वर्ग के रीढ़ के लिए अच्छी नहीं थी। इसलिए मैंने असहज होना स्वीकार लिया, और खुद को तैयार करने लगी उस समुदाय के लिए जो लोग कभी मानने को भी तैयार नहीं थे की मेरे पास भी पैसे हैं।
पैसा सबकुछ नहीं कर सकता, वो आपको सबकुछ करने की इच्छाशक्ति दे देता है। इस इच्छाशक्ति के साथ अगर कोई हार भी जाए तो समाज के चार लोगों को प्रेरित करेगा,प्रभावित करेगा। खाली जेब में कुछ नहीं होता। बहुत साहसी भी खुद को चक्रव्यूह में फंसा अभिमन्यू समझेगा। इसमें ना तो इच्छा रहती है, ना शक्ति, बस मनहूसियत झूल रही होती है। खाली जेब आपको समाजिक भी बना देती है। वो हर मोड़ पर आपका परिचय किसी ऐसे से करवाती है जो आपको क्षण भर में दुनियाभर की सबसे दुर्लभ अनुभव देगी, पर इसका व्यापार आप नहीं कर पाएंगें। इसके व्यापार के लिए भी पैसों की ही जरूरत पड़ेगी।
मुझे करीब तीन साल हो गए कमाना शुरू किए। मैंने इन तीन सालों में अपनी हैसियत बढ़ते नहीं देखा। जब भी कुछ देखा, उसे पाने की चाहत रखी, और एक समय के बाद, पा भी लिया, पर फिर भी हैसियत नहीं बढ़ी। जो कुछ भी खरीद-फरोख्त में मिला वो मेरे ख़्वाब से छोटा रहा। वो जिस एक बिरादरी में मैं घुसने की कोशिश रही थी, वो मेरे बनाए हैसियत की छत था, और मेरी ये कोशिशें उन तक पहुंच पाने का, वो एक तरीक था जहां मेरी टेबल, कुर्सी, मचीया, ईंट सब लग चुका था। जाहिर है संतुलन नहीं बना इनका। ना कोई सीढ़ी बनी, ना मैं छत तक कभी पहुंच पाई। हां,मेरी जेब अब सिर्फ खाली नहीं रहती,वो भर कर खाली हो जाती है।
इसलिए जब गुरूवार को बाजार की चमक देखती हूं तो रूक कर देख लेती हूं उसकी चमक और कसकर पकड़ लेती हूं जेब, की अभी जिंदगी नाराज़ है तो रात में नींद तो लग जाती है कम से कम ! अगर लक्ष्मी नाराज़ हुई, ये भी छीन जाएगा शायद।
-ईशा मृदुल